Wednesday, January 20, 2021

बुरा समझो बुरा हूँ मैं भला समझो भला हूँ मैं

 बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 

तुम्हारी सोंच और चाहत 

के सांचे  में ढला हूँ मैं 

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


है  चाहत  एक दुनियां में 

अलग पहचान हो अपनी 

वो मर्ज़ी हो या  मजबूरी 

अकेला ही चला हूँ मैं 

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


तुम्हारा साथ था जब तक 

तुम्हे  मेरी ज़रुरत थी 

ज़रुरत ही सही लेकिन 

ज़रूरी तो रहा हूँ मैं 

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


पुरानी डोर में होती हैं 

अक्सर क्यूँ नई ऊलझन 

इसी ऊलझन को सुलझाने में

खुद ऊलझा रहा हूँ मैं

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


कोई  रिश्ता ना अब टूटे 

कोई अपना ना अब रूठे 

यही तो चाहा था हरबार 

जब जब भी झुका हूँ मैं 

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं


कोई भी साथ दे ना दे 

मैं अब उम्मीद क्यूँ रख्खूँ

उन्ही को हार बैठा हूँ 

जिनकी खातिर लड़ा हूँ मैं

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


कई किरदार बाकी है 

अभी मेरे दिखाने को

हकिकत में तो हूँ छोटा

उम्मीदों में बड़ा हूँ मैं 

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 

तुम्हारी सोंच और चाहत 

के सांचे  में ढला हूँ मैं 

बुरा समझो बुरा हूँ मैं 

भला समझो भला हूँ मैं 


अमरीश  जोशी  "अमर"

Tuesday, April 2, 2013

ना बाकि मैं रहूँ ना मेरी तलाश रह जाये

झूका दो मुझे इतना 
बदन बस लाश रह जाये 
ना बाकि मैं रहूँ 
ना मेरी तलाश रह जाये 

ये सोच के  टुटा था मैं
शीशे की तरह यारों 
न बाकि मैं रहूँ 
बस मेरी आवाज़ रह जाये 

मैं टूट कर भी टुकड़ो में हूँ 
बस इसलिए बाकि 
न बाकि मैं रहूँ 
दिल में मगर एक याद रह जाये 

तुझे शिकवे थे शिकायत थी 
मेरे दिल की ये चाहत थी 
ना बाकि मैं रहूँ 
ना तू कही नाराज़ रह जाये 

मेरे दिल ने कहा मुझसे 
नज़र जब फेर ली तुमने 
ना  बाकि मैं रहूँ 
लब  पे मेरे फरियाद रह जाये 

अमरीश जोशी "अमर" 

 

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Thanks & Regards

Amrish Joshi

09425918016

आज कल का खुदा मुझको बना देता तो अच्छा था


आज कल का खुदा मुझको 
बना देता तो अच्छा था 
या पत्थर का वो मुझको 
बना देता तो अच्छा था 

आंखे दी थी दो तूने 
हम जहाँ में चार कर बैठे 
खुदा सीने में दिल भी दो 
बना देता तो अच्छा था 

मैं हु माटी का एक पुतला 
मुझे कोई चाहे भी तो क्यों 
मुझे सोने का पंछी तु 
बना देता तो अच्छा था 

यहाँ कीमत है सच की 
ना इंसानों की कीमत हैं 
मुझे एक कागज़ का टुकड़ा 
बना देता तो अच्छा था 

उसकी चाहत का गम 
और आसूं जीने के सहारे हैं 
मुझे फिर बेसहारा गर
बना देता तो अच्छा था 

मैं हेराँ हूँ परेशां हूँ 
बड़े लोगों की दुनियाँ में 
मुझे फिर छोटा सा बच्चा 
बना देता तो अच्छा था 

ख्वाहिशें पूरी करता हैं 
टूट कर जब चमकता हैं 
मुझे तू ऐसा एक तारा
बना देता तो अच्छा था

रहा मझधार में हर पल 
भँवर बन के उम्मीदों का 
मुझे तू एक किनारा जो 
बना देता तो अच्छा था 

सफ़र में हूँ, सड़क पर अब 
मेरे दिन रात कटते है 
छुपाने को तू सर एक घर 
बना देता तो अच्छा था 

दो बूंदों में ऊफन आती है 
आँखें ऐसी नदिया हैं 
तू पलकों की जगह गर पुल 
बना देता तो अच्छा था 

धरम कानून खिलोनें हैं 
यहाँ दौलत सियासत के
कलम को तू मेरी ताक़त 
बना देता तो अच्छा था  

                 अमरीश जोशी "अमर"

हिंदु है सिख-ईसाई मुसलमान यहाँ है मैं ढूंढता हूँ आज इंसान कहाँ हैं ?


हिंदु है सिख-ईसाई 
मुसलमान यहाँ है 
मैं ढूंढता हूँ आज 
इंसान कहाँ हैं ?

भाषा जाती धरम के टुकड़ो में
बंटता हुआ वतन 
सरे जहाँ से अच्छा 
हिंदोस्तान कहाँ हैं ?

फिर देश में रावन और 
दुस्साशन तो आ गये 
कहाँ है पार्थ सारथी ?
और राम कहाँ हैं ?

आश्रमों में रहने को 
मजबूर बुढ़ापा 
श्रवण कुमार सी वो 
अब संतान कहाँ हैं ?

राजनीति के दल दल में 
अब खिलते नहीं कवँल 
यहाँ झूठ छल कपट तो हैं 
बलिदान कहाँ है ?

नोंच लिए हैं उसके पर 
भ्रष्ट लोगों ने 
अब सोने की चिड़िया के पास 
उड़ान कहा हैं ?

              अमरीश जोशी "अमर"

Monday, February 11, 2013

मैं भी यहाँ खामोश रहू

एक तरफ नाम आँखों से 
अर्थी पैर डाले गए सिक्कों की खन खन 
दूसरी तरफ उन्ही सिक्कों को उठता 
ख़ुशी से आल्हादित बचपन 
एक तरफ मृतक के परिजनों का दुःख 
उनका करुण रुदन 
दूसरी और उन बच्चो की निर्दोष ख़ुशी 
आज जेड में जलेबी खा पाने का आनंद 
दिल असमंजस में है 
किस के लिए अफ़सोस करू 
दिमाग कहता है
चीखती चिल्लाती दुनिया की तरह
मैं भी यहाँ खामोश रहू

अमरीश जोशी "अमर"

जस्बातों के दरिया में मौजें आती है जाती है



की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 
कभी हँसती है वो मुझ पर 
कभी मुझको  हँसाती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

कभी मैं रूठ जाता हूँ 
कभी वो रूठ जाती है
कभी मैं भी मनाता हूँ  
कभी वो भी मानती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

कभी उम्मीद बन कर वो 
रह मुझको दिखाती है 
कभी जो दर्द में देखे,  मुझे 
तो टूट जाती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

कर के श्रृंगार वो सोलह
कभी मुझको लुभाती है 
पूछता हूँ वजह जब भी 
वो हँस के टाल जाती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

कभी वो बात करती है 
कभी बातें बनाती है 
कभी आँखें दिखाती है 
कभी नज़रें चुराती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

राह तकती है वो मेरी
रोज खुद को सजाती है
जब आता हूँ गली में मैं 
वो दौड़ खडकी में आती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

कभी वो याद करती है
कभी वो याद आती है
पास न हो जो वो मेरे
ख़ुशी भी रूठ जाती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 


अलग यूँ  है वो ज़माने से
जैसे शबनम हो बूंदों में
प्यार की धुप में देखो 
वो कैसे जगमगाती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 


याद रखती है यूँ मुझको
वो खुद को भूल जाती है 
की जस्बातों के दरिया में 
मौजें आती है जाती है 

अमरीश  जोशी "अमर 




आज दिल में तो था दरिया, मगर आँखों में नमी कम थी


नदारद थी आँगन से अम्मा 
धुप में आज गर्माहट भी कम थी 
क्यों शोर गायब था पंछी और बच्चो का 
घर में आज तो टी वी भी बंद थी 

कहा गयी मुस्कान चहरे की 
चाय में शक्कर भी कम थी 
क्यों कड़वा लगा पानी मुझे 
आज तो प्यास भी कम थी 

माँ के चहरे को रोज मैं 
अखबार सा पढ़ता हूँ 
आज दिल में तो था दरिया 
मगर आँखों में नमी कम थी 

अमरीश जोशी "अमर"